चंडीगढ़। पंजाब में दलितों की आबादी ज्यादा होने की वजह से राज्य के चुनावी समीकरणों पर भी इसका असर देखने को मिलता है। दलित वोटर पंजाब में एक ही पार्टी से बंधे नहीं रहे हैं। यही वजह है कि वोटर कभी अकाली दल तो कभी कांग्रेस और आप की तरफ स्विंग होते रहे हैं।
दोआबा में दलितों का खासा जनाधार है और यहां पर कई क्षेत्रों में वोट 45 फीसदी तक है। कुल मिलाकर दलित आबादी पंजाब में काफी सीटों पर जीत हार का फैसला करती है।
2017 विधानसभा चुनाव की बात करें तो कुल 34 आरक्षित सीटों में से 21 कांग्रेस ने जीती थीं, जबकि नौ सीटें आम आदमी पार्टी ने जीती थीं। वहीं चार सीटें अकाली-बीजेपी गठबंधन के हिस्से में गई थीं। ऐसा नहीं है कि दलित किसी खास इलाके तक ही सीमित हैं। इनकी मौजूदगी माझा दोआबा व मालवा के क्षेत्रों में अच्छी खासी है। 13 विधानसभा क्षेत्रों में मजहबी समुदाय के लोगों की आबादी 25 फीसदी से ज्यादा हैं। उसी तरह से रविदासिया की आबादी 15 विधानसभा क्षेत्रों में 35 फीसदी से ज्यादा है। पंजाब की राजनीति इस बात की गवाह रही है कि दलितों का समूचा वोट कभी भी किसी एक पार्टी को नहीं पड़ा है। इसके कई कारण हैं।
39 जातियों में बंटा दलित भाईचारा
पंजाब में दलित भाईचारा 39 जातियों में बंटा हुआ है। उनके आपसी हित भी टकराते हैं। पंजाब में दलितों की मुख्य जातियों में रामदासिया, रविदास समाज, मजहबी व मजहबी सिख, वाल्मीकि समाज, भगत अथवा कबीरपंथी प्रमुख हैं। 1996 के लोकसभा चुनाव में भी शिरोमणि अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन किया था। अकाली-बसपा गठबंधन ने पंजाब की कुल 13 सीटों में से 11 सीटें जीती थीं। शिरोमणि अकाली दल के हिस्से आठ, जबकि बसपा के हिस्से तीन सीटें आई थीं। इनमें से होशियारपुर सीट से बसपा के संस्थापक कांशीराम विजयी हुए थे, फिरोजपुर से मोहन सिंह और फिल्लौर से हरभजन सिंह लाखा ने अपनी सीटें जीत कर बसपा की झोली में डालीं। उस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें मिली थीं। दलितों का झुकाव 1996 के बाद से अचानक तेजी से अलग अलग पार्टियों की तरफ हुआ है। हालांकि उससे पहले दलितों का ज्यादातर वोट कांग्रेस की तरफ जाता था। 1992 में जब अकाली दल ने विधानसभा चुनाव का बायकॉट किया था, तो भी कांग्रेस रिजर्व 29 में से 20
1997 में अकाली-भाजपा गठबंधन की तरफ खिसका वोट
1997 के चुनावों में दलितों का वोट अकाली-भाजपा गठबंधन की तरफ खिसकना शुरू हुआ। 1997 में भाजपा ने चार रिजर्व सीटों पर चुनाव जीता था। महत्वपूर्ण बात यह थी कि भाजपा चार ही रिजर्व सीटों पर लड़ी थी और सभी सीटों पर मुकाबला कांग्रेस के साथ था। दीनानगर, नरोट मेहरा, जालंधर साउथ और फगवाड़ा सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को करारी शिकस्त दी थी, जबकि अगले चुनाव में कांग्रेस का दलित सीटों पर सूपड़ा साफ हो गया था। 2002 में तो दलितों ने आप पर भी पूरा भरोसा जताया और 34 में से 26 आरक्षित सीटों पर बंपर जीत दिलायी। कांग्रेस के दलित सीएम चरणजीत चन्नी दोनों सीटों से हार गए। आप की तरफ दलितों का वोट शिट हो गया।